सामाजिक विभेदों के मुख्य तत्त्व जाति, धर्म एवं लिंग राजनीति को प्रभावित करते हैं |
सामाजिक विभाजन एवं राजनीति में जाति
सामाजिक विभाजन के निर्धारक तत्त्वों में जाति एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है | राजनीति में जाती सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों रूपों में अपनी भूमिका निभाती है |
जातिगत विषमताएँ – दुनिया के अन्य समाजों से भिन्न भारतीय समाज की एक अनूठी विशेषता यह है कि भारतीय समाज में जाति आधारित विभाजन है | पेशे पर आधारित सामुदायिक व्यवस्था ही जाति कहलाती है | जाति व्यवस्था भारतीय समाज का वास्तविक एवं स्थायी रूप है जो पेशा पर आधारित है | भारतीय समाज में एक जाति समूह के लोग एक तरह के पेशा से संबंधित होते हैं | जिन्हें अलग सामाजिक समुदाय के रूप में भी देखा जा सकता है | यह परंपरा दुनिया के अन्य समाजों में देखने को नहीं मिलती है |
वर्ण-व्यवस्था – वर्ण-व्यवस्था भारतीय समाज में प्राचीन समय से चला आ रहा है | वर्ण-व्यवस्था जाति समुदाय का एक बड़ा वर्ग है | हिंदुओं की वर्ण-व्यवस्था व्यवस्थित रूप है, जिसमें चार वर्ण हैं | ये चरों वर्ण हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र | प्रारंभ में यह वर्ण-व्यवस्था श्रम-विभाजन पर आधारित थी | एक वर्ण में कई सामुदायिक व्यवस्थाएँ थी |
भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्था लागू थी | यह वर्ण-व्यवस्था जाति समूह से भेदभाव एवं निम्नजातियों के साथ छुआछूत के व्यवहार पर आधरित थी | यही कारण है कि ज्योतिबा फुले, महात्मा गाँधी, डाॅ० भीमराव अंबेदकर, पेरियार रामास्वामी नायकर, डाॅ० राम मनोहर लोहिया, लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसे अनेक राजनेताओं और समाज सुधारकों ने जातिगत भेदभाव से मुक्त समाज बनाने के लिए अनेक काम किए |
भारत में जाति-प्रथा के उन्मूलन के लिए संविधान, सरकार एवं अन्य गैर-सरकारी संस्थाओं के द्वारा काफी प्रयास किए गए हैं | फिर भी, भारत में जाति-प्रथा का पूर्णरूप से उन्मूलन नहीं हो पाया है |
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-15 धर्म, वंश, जाति या स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का निषेध करता है | भारत से समाजिक संरचना के निर्धारण में कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं | ये तत्त्व निम्नलिखित हैं –
- आर्थिक स्थिति – आर्थिक स्थिति का वर्ण-व्यवस्था से गहरा संबंध रहा है | ऊँची जातियों की आर्थिक स्थिति हमेशा अच्छी रही है, जबकि पिछड़ी एवं दलित जातियों की आर्थिक स्थिति हमेशा दयनीय रही है |
- संसाधनों का उपयोग – देश में उपलब्ध संसाधनों के उपयोग के मामले में भी जातीय आधार पर विभिन्नता देखने को मिलाती है | अगड़ी जाति के लोगों को देश में उपलब्ध संसाधनों के उपयोग का अवसर ज्यादा मिला, जबकि पिछड़ी एवं दलित जातियाँ ऐसे संसाधनों के उपयोग से वंचित रही हैं |
Note – अगड़ी जाति का अर्थ है – वैसी सभी जातियाँ जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़ी जातियों के अंतर्गत नहीं आती हैं |
गरीबी रेखा का अर्थ है – प्रतिमाह ग्रामीण क्षेत्र में 327 एवं शहरी क्षेत्र में 455 रुपये से कम खर्च करने वाले लोग |
राजनीति में जाति
भारतीय समाज का एक वास्तविक पहलू यह है कि सामाजिक समुदाय के गठन का एक मात्र आधार जाति होती है | अपने-अपने हितों के अनुसार सभी जातीय समुदाय के लोग राजनीति को प्रभावित करते हैं | जैसे –
- चुनाव में जातिगत आधार पर उम्मीदवारों का चयन – राजनीतिक दल का गठन चाहे किसी भी विचारधारा पर हुआ हो, पर चुनाव के समय उम्मीदवारों का चयन जातिगत आधार पर ही होता है |
- चुनाव के समय जातीय आधार पर गोलबंदी करना – उम्मीदवार जिस चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे होते हैं उस चुनाव क्षेत्र में जातिगत भावना को प्राय: उकसाया जाता है ताकि सभी मतदाता जातीय आधार पर गोलबंद होकर संबंधित जाति के उम्मीदवार को अपना वोट दे सकें |
- मंत्रिमंडल के निर्माण में जाति का महत्त्व – भारतीय लोकतांत्रिक समाज के केन्द्रीय मंत्रिमंडल से लेकर ग्राम पंचायत तक यह अघोषित नियम-स बन गया है कि प्रत्येक स्तर पर सभी जातियों को प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए |
- जातिगत संरक्षण के लिए दबाव समूह का निर्माण – जातिगत हितों के संरक्षण एवं पोषण के लिए जातीय आधार पर दबाव समूह के गठन किया जाता है | ये दबाव समूह संबंधित जाति के हितों के लिए कार्य करते हैं |
चुनाव में जातीयता प्रवृत्ति का ह्रास
आज भारतीय समाज आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है | लोगों में जागृति एवं चेतना आयी है, शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ा है | अब चुनाव में जाति के स्थान पर अन्य तत्त्वों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होने लगी है | इसे हम निम्नलिखित रूप में समझ सकते हैं –
- राजनीतिक दलों की किसी एक जाति पर निर्भरता में कमी – प्राय: ऐसा देखा जाता रहा है कि बहुत से राजनीतिक दल किसी खास जाति से ज्यादा संबंधित रहे हैं और वही खास जाति संबंधित राजनीतिक दल का कैडर मतदाता रहा है |
- निर्वाचन क्षेत्र का पुनर्गठन – वर्ष 2009 में निर्वाचन क्षेत्र का पुनर्गठन किया गया है | पहले के निर्वाचन क्षेत्र में राजनीतिक दल जाति आधार पर समीकरण बनाये हुए थे |
- राजनीतिक दलों के हितों में परिवर्तन – राजनीतिक दलों के हितों में अब परिवर्तन होने लगा है | पहले राजनीतिक दलों का मुख्य हित जाति से संबंधित था परंतु अब राष्ट्रीय, राज्यस्तरीय एवं क्षेत्रीय सभी राजनीतिक दलों का मुख्य हित राष्ट्रीय हित हो गया है |
- सिद्धांत में परिवर्तन – अगर जातीय भावना स्थायी और अटूट होती तो जातीय गोलबंदी पर सत्ता में आनेवाली पार्टी की कभी हार नहीं होती | यह माना जा सकता है कि क्षेत्रीय पार्टियाँ जातीय गुटों से संबंध बनाकर सत्ता में आ जाएँ |
जाति के अंदर राजनीति अर्थात् जाति का राजनीतिकरण
राजनीति जाति को निम्नलिखित ढंग से प्रभावित करती है –
- राजनीति के द्वारा जातियों की पहचान बनती है – बहुत से ऐसी जातियाँ हैं जिनकी जनसंख्या अन्य जातियों की अपेक्षा अधिक है, फिर भी उन्हें राजनीतिक पहचान नहीं मिली |
- सत्ता पर कब्ज़ा के लिए अनेक जातियों का समुदाय – आजकल बहुत से जाति आधारित समुदाय बन रहे हैं, इसका मुख्य कारण है सत्ता की प्राप्ति | अनेक जातियाँ आपस मिलकर गठबंधन बनाकर किसी खास राजनीतिक दल या राजनीतिक गठबंधन को चुनाव के समय मतदान कराती हैं | ये राजनीतिक दल या राजनीतिक गठबंधन इन जातीय समुदायों को विकास में मदद पहुँचाते हैं |
- जातियों के राजनीतिक दलों के संपर्क में आने से उनमें राजनीतिक चेतना एवं जागृति आती है |
धर्म, सांप्रदायिकता एवं राजनीति
धर्म एवं राजनीति अभिन्न रूप से एक-दूसरे से जुड़े होते हैं | सभी देशों में धर्म का राजनीतिकरण हुआ है, जो सामाजिक विभाजन के लिए जिम्मेवार है | यह धर्म राजनीति के माध्यम से निम्न रूपों में सामाजिक विभाजन करता है |
- धर्म एवं राजनीतिक एक साथ जुड़ा होना चाहिए – महात्मा गाँधी का यहाँ धर्म का अर्थ नैतिकता से था | इसलिए उनका मानना था राजनीति में नैतिकता होनी चाहिए |
- धार्मिक कट्टरता का राजनीतिक संरक्षण – अक्सर हमलोग देखते हैं कि अपने देश में धार्मिक उन्माद के कारण हमेशा सांप्रदायिक दंगे होते रहते हैं, जिनके शिकार अल्पसंख्यक लीग होते रहे हैं |
- धर्म द्वारा महिलाओं का शोषण – महिलाओं द्वारा बार-बार यह आवाज उठती रही है कि भारत में ऐसे-ऐसे धार्मिक रीति-रिवाज एवं प्रथाएँ हैं, जो महिलाओं पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाती हैं | यही प्रतिबंध महिलाओं का शोषण करती हैं |
सांप्रदायिकता
सांप्रदायिकता धार्मिक कट्टरता का निकृष्टतम रूप है | यह धार्मिक भावना भड़काकर सामाजिक बिभाजन पैदा करता है | समस्या तब और विकराल हो जाती है जब राजनीति में धार्मिक विचार किसी खास समुदाय का पोषण करते हैं और दूसरे धर्म के खिलाफ मोर्चा खोलने लगते हैं | ऐसा तब होता है जब एक खर्म के विचारों को दूसरे से श्रेष्ठ माना जाने लगता है और कोई धार्मिक समूह अपनी माँगों को दूसरे समूह के विरोध में खड़ा करने लगता है | राजनीति से धर्म को इस तरह से जोड़ना सांप्रदायिकता (Communalism) कहलाता है |
सांप्रदायिकता क्या है – संप्रदायिकता का अर्थ एक ऐसी विचारधारा से है जो इस विश्वास पर आधारित है कि समाज धार्मिक आधार पर बँटा होता है और उनेक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक हित अलग-अलग होते हैं | यहाँ तक कि अपने धार्मिक अंतरों एवं एक-दूसरे पर अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करने की प्रवृत्ति के कारण वे एक-दूसरे के शुत्रु बन जाते हैं |
राजनीति में सांप्रदायिकता के स्वरूप
भारतीय राजनीति में इसके प्रभाव जो निम्न रूपों में देखा जा सकता है –
- राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने के लिए – सांप्रदायिक सोच वाले राजनीतिक दल लोगों में धार्मिक भावना जागृत कर अलग समुदाय का निर्माण करने का प्रयास करते हैं |
- संप्रदाय के नाम पर राजनीतिक दलों का निर्माण – स्वतंत्रता के बाद धर्म पर आधारित कई राजनीतिक दलों का निर्माण हुआ |
- चुनावों में धर्म का प्रयोग – ऐसे तो भारत के चुनावों में धर्म के प्रयोग पर रोक है | फिर भी बहुत से राजनीतिक दल चुनावों में अप्रत्यक्ष रूप से धर्म एवं संप्रदाय के नाम पर वोट माँगते हैं |
- मंत्रिमंडल के निर्माण से धर्म की भूमिका – केंद्र से लेकर राज्य स्तर के मंत्रिमंडल निर्माण से अपने-अपने धर्म में वर्चस्व रखने वाले लोगों को अवश्य स्थान दिया जाता है |
- राजनीति एवं धार्मिक हित समूह – धर्म के नाम पर कई हित समूह कार्य करते हैं |
धर्म निरपेक्ष शासन की अवधारण
धर्म निरपेक्षता में निम्नलिखित बातें होती हैं –
- धर्म निरपेक्ष राज्य किसी भी धर्म को राजकीय धर्म घोषित नहीं करेगा और न ही किसी धर्म को विशेष दर्जा देगा |
- धर्म निरपेक्षता के अंतर्गत संविधान सभी नागरिकों को किसी भी धर्म का पालन करने एवं उसका प्रचार करने की आजादी देता है |
- संविधान धर्म के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव को असंवैधानिक घोषित करता है |
- संविधान सभी धर्मों में समानता लाने का प्रयास करता है |
लैंगिक मसले एवं राजनीति
लैंगिक असमानता सामाजिक विभाजन का तीसरा मुख्य आधार है | लैंगिक असमानता समाज के हर क्षेत्र में दिखाई पड़ती है | लैंगिक विभेद पर आधारित सामाजिक संरचना हमारे सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में दिखाई पड़ती है | लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण के क्रम में परिवार में ही यह भवना पनप चलाने और बच्चों के पालन-पोषण तक ही सिमित होगी | भारत में महिलाओं की भागीदारी किसी भी क्षेत्र में संतोषजनक नहीं है | इन बातों की पुष्टि इन तथ्यों से भी होती है –
- साक्षरता दर में पुरुष वर्ग का प्रतिशत 76 है जबकि महिला 54 प्रतिशत ही साक्षर है |
- एक दिन में महिला औसतन साढ़े सात घंटा काम कराती है, जबकि पुरुष मात्र छ: घंटे ही काम करते हैं | फिर भी पुरुषों द्वारा किये गये काम को ज्यादा महत्त्व दिया जाता है |
- हमारा समाज लैंगिक पूर्वाग्रह से ग्रसित है | लड़कियों की जन्म से पहले ही हत्या कर दी जाती है | क्योंकि माँ-बाप को सिर्फ लड़के की चाहत होती है |
- आजादी के मामले में भी पुरुषों की तुलना में महिलाएँ पीछे हैं | इसलिए उनका शारीरिक एवं मानसिक विकास पुरुषों की तुलना में कम हो पाता है |
महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व
भारत में प्रारंभ से ही महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व बहुत ही कम रहा है | इसी के चलते विभिन्न महिला संगठनों ने काफी आंदोलन एवं संघर्ष किया | आज भारत में महिला प्रतिनिधोयों की स्थिति पर गौर करें तो 15वीं लोकसभा में महिला प्रतिनिधि लगभग 11 प्रतिशत हैं | 16वीं लोकसभा में कमोवेश स्थिति लगभग वही है | भारतीय संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए महिला आरक्षण विधेयक लाया गया है, जो वर्ष 2009 के संसद के बजट सत्र में राज्यसभा से पास हो चका है |