लघु उत्तरीय प्रश्न
- गर्मी के दिनों में अधिक पसीना क्यों होता है ?
उत्तर – वर्ज्य पदार्थ के रूप में जल एवं लवणों के निष्कासन में स्वेद ग्रंथियों की अहम भूमिका होती है | त्वचा में अवस्थित स्वेद ग्रंथियाँ, गर्मी के दिनों में अधिक जल एवं लवणों को तेजी से इकट्ठा करती हैं, क्योंकि उत्स्वेदन द्वारा मनुष्य अपने शरीर के तपमान को स्थिर बनाए रखता है |
2. डायलिसिस का सिध्दांत क्या है ?
उत्तर – कभी-कभी वृक्क क्षतिग्रस्त होकर कार्य करना बंद कर देता है | ऐसी स्थिति में उत्सर्जी पदार्थों को छानने तथा जल एवं लवणों के उचित मात्रा के संतुलन के लिए कृत्रिम वृक्क का व्यवहार करना पड़ता है | यह विधि डायलिसिस कहलाती है | इस विधि में मरीज के रुधित को डायलिसिस मशीन में प्रवाहित किया जाता है | इस मशीन में रुधिर से उत्सर्जी पदार्थों को अलग करके फिर उसे शरीर में वापस पंप कर दिया जाता है |
3. उत्सर्जी पदार्थ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर – सजीवों में उपापचयी क्रियाओं के फलस्वरूप पचे हुए भोज्य पदार्थ अवशोषित कर लिए जाते हैं | इस क्रिया के फलस्वरूप कुछ ऐसे पदार्थों का निमार्ण होता है जो शरीर के लिए अनावश्यक एवं विषाक्त होते हैं जिन्हें बाहर निकालना आवश्यक है | ऐसे पदार्थ को उत्सर्जी पदार्थ कहते हैं | CO2, पसीना, मल-मूत्र इत्यादि उत्सर्जी पदार्थ है |
4. ग्लोमेरुलर फिल्ट्रेशन क्या है ?
उत्तर – ग्लोमेरुलम एक छन्ना की तरह कार्य करता है | अभिवाही धमनिका जिसका व्यास अपवाही धमनिका से अधिक होता है, रक्त के साथ यूरिया, यूरिक अम्ल, जल, ग्लूकोज, लवण, प्रोटीन इत्यादि ग्लोमेरुलस में लाती है | ये पदार्थ बोमैन-संपुट की पतली दीवार से छनकर वृक्त-नलिका में चले जाते हैं | अपवाही धमनिका का व्यास कम होने के कारण ग्लोमेरुलस में रक्त पर दबाव बढ़ जाता है जिसके फलस्वरूप छनने की क्रिया उच्च दाब पर होती है | उच्च दाब में फिल्ट्रेशन को अल्ट्राफिल्ट्रेशन कहते हैं | प्लाज्मा के साथ सभी लवण, ग्लूकोज और अन्य पदार्थ भी छनते हैं | कोशिकाएँ एवं प्लाज्माप्रोटीन बोमैन-संपुट की भित्ति के लिए अपारगम्य होते हैं | इस फिल्ट्रेट को ग्लोमेरुलर फिल्ट्रेट कहते हैं |
5. पौधे अपना उत्सर्जी पदार्थ किस रूप में निष्कासित करते हैं ?
उत्तर – पौधों में उत्सर्जन के लिए विशिष्ट अंग नहीं होते हैं | इसमें उत्सर्जन के लिए कई तरीके अपनाये जाते हैं | श्वसन क्रिया से CO2 गैस एवं प्रकाश संश्लेष्ण क्रिया से ऑक्सीजन गैस विसरण क्रिया द्वारा पत्तियों से निष्कासित होते हैं | बहुत-से पौंध कार्बनिक उपशिष्टों या उत्सर्जी पदार्थों को उत्पन्न करते हैं जो उनकी मृत कोशिकाओं में संचयित रहते हैं | पौधे छाल के रूप में भी उत्सर्जी पदार्थ बाहर निकालते हैं | पौधे में उपापचयी क्रियाओं के दौरान टैनिन, रेजिन, गोंद आदि उत्सर्जी पदार्थों का निर्माण होता है | कुछ पौधे में उत्सर्जी पदार्थ गाढ़े दूधिया तरल लैटेक्स के रूप में संचित रहता है |
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
- वृक्क के द्वारा उत्त्सर्जन क्रिया कैसे संपन्न होती है ? समझाएँ |
उत्तर – वृक्क से मूत्र के रूप में उत्सर्जन निम्नलिखित तीन प्रक्रियाओं के द्वारा होता है | i. ग्लोमेरुलर फिल्ट्रेशन – यह एक भौतिक प्रक्रम है, जिसमें ग्लोमेरुलस की अपवाही धमनिका का व्यास अभिवाही धमनिका के व्यास से कम होने के कारण, ग्लोमेरुलस की रुधिर केशिकाओ में रुधिर बहुत दाब के साथ प्रवेश करता है | इस दाब के फलस्वरूप रुधिर प्लाज्मा, बौमेंस कैप्स्यूल की भित्ति द्वारा छनकर इसके भीतर प्रवेश कर जाता है | ग्लोमेरुलस में छनने की इस क्रिया को परानिस्यन्दन ( ultrafiltration ) कहते हैं और छनित पदार्थ को ग्लोमेरुलर फिल्ट्रेट कहते हैं | ii. ट्यूबुलर पुनरवशोषण – ज्योंही छनित ( ग्लोमेरुलर फिल्ट्रेट ) वृक्क नलिका में आता है , समीपस्थ कुंडलित नलिका की कोशिकाएँ , ग्लूकोस , सोडियम , पोट्रैशियम लवण , जल आदि पदार्थो को अवशोषित कर लेती हैं , एवं ये अवशोषित पदार्थ वृक्क नलिका के चारो ओर विद्यमान कोशिकाओं से होते हुए फिर वहाँ से सामान्य परिवहन में पहुँच जाते हैं | iii. ट्यूबुलर स्त्रवन – समीपस्थ और दूरस्थ कुंडलित वृक्क नलिका की कोशिकाएँ कुछ अन्य पदार्थो को उत्सर्जी पदार्थ के रूप में स्त्रावित करती हैं , जो फिल्ट्रेट से मिल जाती हैं |
इस प्रकार जब छनित द्रव दूरस्थ कुंडलित भाग में पहुँचता है , तब इसे मूत्र कहते हैं | यह मूत्र मुत्रनलिका से होते हुए मूत्राशय में जमा होता है , और समय – समय पर मूत्रमार्ग के छिद्र द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है |
2. कृत्रिम वृक्क क्या है ? यह किस प्रकार कार्य करता है ?
उत्तर – डायलिसिस मशीन ( dialysis machine ) एक कृत्रिम वृक्क की तरह कार्य करता है , अतः डायलिसिस मशीन एक कृत्रिम वृक्क है |इस मशीन में एक टंकी होती है , जिसे डायलाइजर कहते हैं | डायलाइजर में डायलिसिस फ्लूइड ( dialysis fluid ) नामक तरल पदार्थ भरा होता है |इस तरल पदार्थ में सेलोफेन से बनी बेलनाकार रचना लटकती है , जो आंशिक रूप से पारगम्य होता है , तथा यह केवल विलेय ( solute ) को ही विसरित होने देता है | डायलिसिस फ्लूइड की सांद्रता ऊतक द्रव -जैसी होती है , लेकिन इसमें नाइट्रोजनी विकार तथा लवण की मात्रा कम होती है | कार्यविधि – सर्वप्रथम ऐसे व्यक्ति , जिसका अपने शरीर का वृक्क कार्य नहीं करता , उसके शरीर का रक्त एक धमनी द्वारा निकालकर उसे 0°C तक ठंडा किया जाता है | अब इस रक्त को एक पंप की सहायता से डायलाइजर में भेजा जाता है | यहाँ रक्त से नाइट्रोजनी विकार विसरित होकर डायलिसिस फ्लूइडा में चला जाता है | पुन: इस रक्त लो पंप की मदद से एक शिरा के द्वारा उस व्यक्ति के शरीर में वापस पहुँचा दिया जाता है | इस प्रकार कृत्रिम वृक्क से रक्त के शुद्धिकारण की यह विधि एक अत्यंत विकसित तकनीक है |
3. पौधों में उत्सर्जन कैसे होता है ?
उत्तर – पौधों में उत्सर्जन के लिए जन्तुओं-जैसा कोई विशिष्ट अंग नहीं पाए जाते हैं | पौधों में उत्सर्जन के लिए निम्नांकित तरीके अपनाए जाते हैं | i. पौधों में कार्बनिक उत्सर्जी उनकी मृत कोशिकाओं, जैसे – अंत:काष्ठ, पत्तियों एवं छाल में संचित रहते हैं | पत्तियों के गिरने एवं छाल के बिलगाव से उन उत्सर्जी पदार्थों का पादप शरीर से निष्कासन होता है | ii. विभिन्न उपापचयी क्रियाओं के दौरान टैनिन, रेजिन एवं गोंद आदि उत्सर्जी पदार्थों का निर्माण होता है | टैनिन वृक्षों की छाल में तथा रेजिन एवं गोंद पुराने जाइलम में संचित रहते हैं | iii. कुछ पौधों में उत्सर्जी पदार्थ गाढ़े, दूधिया तरल के रूप में संचित होता है, जिसे लैटेक्स ( latex ) कहते हैं |
4. कृत्रिम वृक्त क्या है ? यह कैसे कार्य करता है ?
उत्तर – विशेष परिस्थिति जैसे – संक्रमण, मधुमेह, सामान्य से अधिक उच्च रक्तचाप या किसी प्रकार के चोट के कारण वृक्क क्षतिग्रस्त होकर अपना कार्य करना बंद कर देते हैं | क्षतिग्रस्त वृक्क के कार्य न करने की स्थिति में शरीर में आवश्यकता से अधिक मात्रा में जल, खनिज या यूरिया जैसे जहरीले विकार एकत्रित होने लगते हैं जिससे रोगी की मृत्यु हो सकती है | ऐसी स्थिति में वृक्क का कार्य अतिविकसित मशीन के इस्तेमाल से सम्पादित कराया जाता है | इसे डायलिसिस मशीन या कृत्रिम वृक्क कहते हैं | यह मशीन वृक्क की तरह ही कार्य करता है | इस मशीन में एक टंकी होता है जो डायलाइजर कहलाता है | इसमें डायलिसिस फ्लूयूइड नामक तरल पदार्थ भरा होता है | इस तरल पदार्थ में सेलोफेन से बनी एक बेलनाकार रचना लटकती रहती है | यह आंशिक रूप से पारगम्य होता है | है | यह केवल विलय का ही विसरण होने देता है | डायलिसिस फ्लूइड की सांद्रता सामान्य उतक द्रव जैसी होती है | परंतु, इसमें नाट्रोजनी विकार तथा लवण की अत्यधिक मात्रा नहीं होती है | डायलिसिस के समय रोगी के शरीर का रक्त एक धमनी के द्वारा निकालकर उसे 0°C तक ठंडा किया जाता है | इस रक्त को विशिष्ट प्रतिस्पंदक से उपचारित कर तरल अवस्था में ही रखा जाता है | इस रक्त को एक पम्प की सहायता से डायलाइजर में भेजा जाता है | यहाँ रक्त से नाइट्रोजनी विकार विसरित होकर डायलिसिस फ्लूइड में चला जाता है | इस तरह शुद्ध किये गये रक्त के पुन: शरीर के तापक्रम पर लाया जाता है | पुन: इस रक्त को पम्प की मदद से एक शिरा के द्वारा रोगी के शरीर में वापस पहुँचा दिया जाता है | रक्त के शुद्धिकरण की यह क्रिया हिमोडायलिसिस कहलाता है | रक्त के शुद्धिकरण का यह एक विकसित तकनीक है |