जैव प्रक्रम ( Life Process ) – वे सारी क्रियाएँ जिनके द्वारा जीवों का अनुरक्षण होता है, जैव प्रक्रम कहलाती है |
जैविक प्रकियाओं के लिए जीवों को ऊर्जा को आवश्यकता होती है ऊर्जा प्राप्त करने के लिए खाद्य – पदार्थों की जरुरत होती है जो पोषण की क्रिया से जीव प्राप्त करते हैं पोषण द्वारा प्राप्त जटिल खाद्य – पदार्थों का सरलीकरण विभिन्न चरणों में उपचयन एवं अपचयन अभिक्रियाओं द्वारा होता है, इस प्रक्रम को श्वसन कहते हैं |
- जीवन-संबंधी क्रियाओं को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रत्येक जीव की दो प्रमुख आवश्यकताएँ है –
- जीवन की उपापचयी क्रियाओं के संचालन के लिए निरंतर ऊर्जा की आपूर्ति, तथा
- शरीर की वृद्धि तथा टूटे – फूटे ऊतकों की मरम्मत के लिए जीवद्रव्य का निर्माण |
पोषण – वह विधि जीव पोषक तत्वों को ग्रहण कर उनका उपयोग करते हैं, पोषण कहलाता है |
- पोषण की विधियाँ – जीवों में पोषण मुख्यत: दो विधियों द्वारा होता है –
- स्वपोषण ( Autotrophic nutrition )
- परपोषण ( Heterotrophic nutrition )
1. स्वपोषण – ऑटोट्रॉफ शब्द की उत्पति दो ग्रीक शब्दों, ऑटों और टॉफ के मेल से हुई है | ऑटों शब्द का अर्थ स्व या स्वत: होता है तथा ट्रॉफ का अर्थ पोषण होता है | ऐसे जीव जो भोजन के लिए अन्य जीवों पर निर्भर न रहकर अपना भोजन स्वयं संश्लेषित करते हैं स्वपोषी या ऑटोट्रॉफ कहलाते हैं |
सभी हरे पौधे स्वपोषी या ऑटोट्रॉफ कहलाते है | सभी हरें पौधे स्वपोषी होते हैं इन पौधों में एक प्रकार की रचना हरितलवक या क्लोरोप्लास्ट पाई जाती है | क्लोरोप्लास्ट में हरें रंग का लवक जिसे पर्णहरित या क्लोरोफिल कहते हैं, पाया जाता है |
2. परपोषण – हेटरोट्रॉफ शब्द की उत्पति दो ग्रीक शब्दों हेटरो और ट्रॉफ के मेल से हुई है हेटरो शब्द का अर्थ ‘भिन्न’ या ‘पर’ होता है तथा ट्रॉफ का अर्थ पोषण होता है परपोषण का प्रक्रिया है जिसमें जीव अपना भोजन स्वयं संश्लेषित कर किसी – न – किसी रूप में अन्य स्त्रोटोन से प्राप्त होता है | ऐसी जीव परपोषी या हेटरोट्रॉफ कहलाते हैं |
- परपोषण के प्रकार – परपोषण मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं –
- मृतजीवी पोषण ( Saprophytic nutrition ) – सप्रोस ग्रीक शब्द का अर्थ अवशोषण होता है | इस प्रकार के पोषण में जीवन मृत जंतुओं और पौधों के शरीर से अपना भोजन, अपने शरीर की सतह से, घुलित कार्बनिक पदार्थों के रूप में अवशोषित करते हैं | मृत जीवी अपघटक या सैप्रफाइट्स भी कहलाते हैं जैसे – कवक, बैक्टीरिया, प्रोतोजोआ |
- परजीवी पोषण ( Parasitic nutrition ) – पारासाइट शब्द दो ग्रीक शब्दों, पारा और साइटोस के मेल से बना है पारा का अर्थ पास बगल या पार्श्व में तथा साइटोस का अर्थ पोषण होता है | इस प्रकार के पोषण में जीव दूसरों प्राणी के संपर्क में स्थायी या अस्थायी रूप से रहकर, उसके अपना भोजन प्राप्त करते हैं | ऐसे जीवों का भोजन अन्य प्राणी के शरीर मौजूद कार्बनिक पदार्थ होता है इस प्रकार, भोजन करनेवाले जीव परजीवी कहलाते हैं और जिस जीव के शरीर से परजीवी आपना भोजन प्राप्त करते हैं वे पोषी कहलाते है | जैसे – अमरबेल, जीवाणु |
- प्राणिसम पोषण ( Holozoic nutrition ) – हेलोजोइक शब्द दो ग्रीक शब्दों, होला और जोइक का अर्थ जंतु जैसा होता है | वैसा पोषण जिसमें प्राणी अपना भोजन ठोस या तरहल के रूप में जंतुओं के भोजन ग्रहण करने की विधि द्वारा ग्रहण करते हैं प्राणिसम पोषण कहलाता है \ वैसे जीव जिसमें इस विधि से पोषण होता है, प्रनिसमभोजी कहलाते हैं | जैसे अमीबा, मेढ़क, मनुष्य |
पौधों में पोषण – स्वपोषी पौधे अपना भोजन स्वयं बनाते हैं यह अपन भोजन प्रकाशसंश्लेषण प्रक्रिया द्वारा बनाते हैं |
- प्रकाश संश्लेषण
सूर्य की ऊर्जा की सहायता से प्रकाशसंश्लेषण ममे सरल अकार्बनिक अणु – कार्बन डाइऑक्साइड ( CO2 ) और जल ( H2 O ) का पादप -काशिकाओं में स्थिरीकरण कार्बनिक अणु ग्लोक्स, ऑक्सीजन तथा जल में होता है |
6CO2 + 12H2 O → C6 H12 O6 + 6O2 + 6 H2 O
प्रकाशसंश्लेषण क्रिया से उत्पन्न ग्लूकोस अणु को पौधे ऊर्जा कके लिए संचित रखते है तथा ऑक्सीजन और जल के विसरण क्रिया द्वारा अपने पत्तियों में स्थित स्टोमाटा द्वारा बाहर निकाल देते हैं | पत्तियों के स्टोमाटा खुलते और बंद होते रहते है जब द्वारा कोशिकाएँ जल अवशोषित कर फैल जाती है जब ये रंध्र खुल जाता है तथा इसके विपरीत जब द्वार कोशिकाओं का जल निकल जाते हैं तब ये रंध्र बंद हो जाता है |
- प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया के लिए आवश्यक पदार्थ ( घटक )
- पर्णहरित या क्लोरोफिल – सभी स्वपोषी पौधे प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया कहते हैं चाहे उनकी पत्तियाँ किसी भी रंग की हो अर्थात् उनमें पर्णहरित पाया जाता है |
- कार्बन डाइऑक्साइड – प्रकाशसंश्लेषण में पौधे कार्बन डाइऑक्साइड को वायुमंडल से ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं वायुमंडल में CO2 0.03% मौजूद होता है |
- जल – पौधे भोजन बनाने के लिए जल को जड़ो द्वारा ग्रहण करते हैं तथा जाइलम ऊतक द्वारा पौधे के विभिन्न भागों एवं पत्तियों में पहुँचाते हैं | जड़ द्वारा पौधे के विभिन्न भागों एवं खनिज लवणों का भी अवशोषण करते हैं | जैसे – नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, कैल्सियम, मैग्नीशियम, लोहा इत्यादि |
- सूर्य प्रकाश – हरें पौधे केवल सूर्य के प्रकश में ही कार्बन डाइऑक्साइड को शुद्ध करते हैं |
हरित पौधों में पाए जानेवाले हरितलवकों में मौजूद क्लोरोफिल ही सूर्य प्रकाश में मौजूद सौर ऊर्जा या विकिरण ऊर्जा को ट्रेप या विपश कर सकते हैं एवं उसे रासायनिक ऊर्जा में बदलकर संश्लेषित ग्लूकोस के अणुओं में इसका समावेश करते हैं |
- जंतुओं में पोषण –
जंतु परपोषी होते हैं अर्थात् ये जंतु मृतजीवी, परजीवी या प्रणिसमपोषी हो सकते है | एककोशिकीय जंतुओं में पोषण के लिए विशेष अंग नहीं होते हैं, ये अपना भोजन शरीर के सतह द्वारा विसरण क्रिया से करते हैं लेकिन बहुकोश्कीय जंतुओं में पोषण के लिए विशेष अंग पाए जाते हैं |
- अमीबा में पोषण – अमीबा एककोशिकीय, प्रणिसमपोषी जीव है यह मृदुजलीय एककोशिकीय तथा अनिश्चित आकर का प्राणी है इसका आकर कूटापादों के बनने और बिगड़ने के कारण बदलता रहता है | अमीबा अपना भोजन शौवाल, बैक्टीरिया, डायटम, अन्य छोटे एककोशिकीय जीव तथा मृत कार्बनिक पदार्थ को कूटपादों की मदद से अन्त ग्रहण करते हैं | अमीबा में पोषण आंतग्रहण, पाचन तथा बहिष्करण प्रकियाओं पूण होता है |
अमीबा एंजाइमों की मदद से भोजन का पाचन करते हैं | पचा हुआ भोजन समूचे शरीर में वितरित हो जाता है तथा अपचे भोजन शरीर की सतह द्वारा अस्थायी छिद्र से निकल जाता है |
2. पैरामीशियम में पोषण – पैरामीशियम एल्कोशिकीय, प्रणिसमपोषी, मृदुजलीय जीव है तथा इसका शरीर प्रचलन अंगक सीलिया स्थान से ढंका होता है | ये भोजन का अन्तग्रहर्ण शरीर के एक निश्चित स्थान पर करते हैं, जो कोशिका मुख या साइटोस्टोस कहलाता है | पैरामीशियम में स्थित एंजाइम्स भोजन का पाचन करते हैं और अपचा भोजन अस्थायी छिद्र के निर्माण द्वारा बाहर निकाल देते हैं |
मनुष्य का पाचनतंत्र – मुख्य तथा सभी उच्च श्रेणी के जंतुओं में भोजन के पाचन के विशेष अंग होते हैं जो आहारनाल कहलाता है आहारनाल इससे संबंद्ध पाचक ग्रंथियाँ और पाचन क्रिया मिलकर पाचनतंत्र का निर्माण करते हैं |
- मनुष्य का आहारनाल – आहारनाल करीब 8 से 10 मीटर तक लंबा होता हहै यह मुखगुहा से शुरू होकर मलद्वारा तक फैला होता है |
मुखगुहा – मुखगुहा आहारनाल का पहला भाग है यह उपरी तथा निचले जबड़े से घिरी होती है मुखगुहा को बंद करने के लिए दो मांसल होठ होते हैं | मुखगुहा से जीभ तथा दाँत होते हैं जीभ मुखगुहा के फर्श पर स्थित एक मांसल रचना है इसका अगला सिरा स्वतंत्र तथा पिछला सिरा फर्श से जुड़ा होता है जीभ के ऊपरी सतह पर कई छोटे – छोटे अंकुर होते हैं, जिन्हें स्वाद कलियाँ कहते हैं | इन्ही स्वाद कलियों से भोजन का स्वाद कलियाँ कहते हैं | इन्ही स्वाद कलियों से भोजन का स्वाद का पता चलता है | जीभ बोलने तथा भोजन को निगलने में मदद करता है | मुखगुहा के ऊपरी तथा निचले जबड़े में दाँत धँसा होता है | दाँत का वह भाग जो मसूढ़े में धँसा होता है | जड़ तथा वह भाग मसूढ़े के ऊपर निकाला होता है | सिर या शिखर कहलाता है जड़ तथा शिखर के बीच का भाग ग्रीवा या गर्दन कहलाता है जड़ तथा शिखर के बीच का भाग ग्रीवा या गर्दन कहलाता है | जड़ तथा शिखर के बीच का भाग ग्रीवा या गर्दन कहलाता है | प्रत्येक दाँत के भीतर एक मज्जगुहा होता है इसके ऊपर दंतास्थि या डेंटाइन के ऊपर ईनामेल की एक कड़ी परत होती है, जो दाँत को सुरक्षा देती है, एक वयस्क मनुष्य के मुखगुहा के कुल 32 दाँत होते हैं |
दाँत चार प्रकार के होते हैं –
- कर्तनक ( Incisor )
- अग्रचार्वणक ( Premolar )
- चर्वणक ( Molar )
- भेदक ( Canine )
- दंत-अस्थिक्षय और दंत प्लाक
जब हम कोई मीठी चीज तथा खाने के बाद अपनी दाँतों को अच्छी तरह साफ नहीं करते हैं, तब ये चीजों हमारी दाँतों से चिपक जाती है इनमें स्थित शक्कर पर बैक्टीरिया रासायनिक क्रिया कर अम्ल बनाते हैं | यह अम्ल दाँत की बाहरी कड़ी परत क्रिया कर उसे नरम बना देता है | धीरे – धीरे उस स्थान पर छिद्र बन जाता है, जो दंत – अस्थियक्षाय कहलाता है | बैक्टीरिया तथा भोजन के महीन कण दाँत से चिपकरकर एक परत का निर्माण कर देते हैं | जब इसे अच्छी प्रकार से सॉफ नहीं किया जाता है | तब यह दाँतों पर एक स्थायी परत बना देता है यह परत दंत प्लाक कहलाता है |
नोट :- मनुष्य के मुखगुहा में तीन जोड़ी लारग्रथियाँ पाइ जाती हे जो पैरोटिड ग्रंथि, इनसे तार निकलता है, जो भोजन के पाचन से सहायक होता है | सबमैडिबुलर लारग्रंथि तथा सबलिगुअल लार ग्रंथि कहलाती है |
- ग्रसनी – मुखगुहा का पिछला भाग ग्रसनी कहलाता है इसमें दो छिद्र होते हैं | निगलद्वार – जो आहारनाल के अगले भाग ग्रासनली में खुलता है तथा कंठद्वार – जो श्वासनली में खुलता है कंठद्वारा के आगे एक पटी जैसी रचना होती है जो एपिग्लौटिस कहलाता है | मनुष्य जब भोजन करता हे तब या पटी श्वासनली के ढँक देता है | जिससे भोजन श्वासनली में नहीं जा पाता है |
- ग्रासनली – मुखगुहा से लार से सना हुआ भोजन निगलद्वार के द्वारा ग्रासनली में पहुँचता है | भोजन के पहुँचते ही ग्रासनली की दीवार में तरंग की तरह सिकुड़न और फैलाव शुरू होता है, जिसे क्रमाकुंचन कहते हैं इसी के कारण भोजन धीरे – धीरे घिसक कर ग्रासनली से आमाशय में पहुँचता है |
- आमाशय – यह एक चौड़ी थैली जैसी रचना है जो उदर – गुहा के बाई और से शुरू होकर अनुप्रस्थ दिशा में फैली होती है| अमाशय का अग्रभाग कार्डिएक तथा पिछला भाग पाइलोरिक भाग कहलाता है | आमाशय की भीतरी दीवार पर अंदर इ और स्तंभकार एपिथिलियम कोशिकाओं का स्तर धँसा रहता है | इन धँसे भागों की कोशिकाएँ अमाशय ग्रंथि या जठर ग्रंथि का निर्माण करती है | जठर ग्रंथियों की कोशिकाएँ तीन प्रकार की होती है |
- श्लेषमा या मयूकस कोशिकाएँ
- भितीय या अम्लजन कोशिकाएँ
- मुख्य या जाइमोजन कोशिकाएँ
इन तीनों प्रकार की कोशिकाओं के स्त्राव का सम्मिलित रूप जठर रस कहलाता है | जठर रस में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल म्यूकस या श्लेष्मा तथा निष्क्रिय पेप्सिनोजेन होता है | हाइड्रोक्लोरिन अम्ल निष्क्रिय पेप्सिनोजेन होता है | हाइड्रोक्लोरीन अम्ल निष्क्रिय पेप्सिनोजेन को सक्रिय पेप्सिन नाम इंजाइम में बदल देता है | पेप्सिन भोजन के प्रोटीन पर कार्य कर उसे पेप्टोन में बदल देता है | हाइड्रोक्लोरिक अम्ल भोजन के साथ आनेवाले बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है | म्यूकस आमाशय की दीवार तथा जठर ग्रंथियों को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल तथा एंजाइम पेप्सिन से सुरक्षित रखता है | मनुष्य के आमाशय में प्रतिदिन लगभग 3लीटर जठर रस का स्त्राव होता है | जब कोई व्यक्ति लम्बे समय तक भूखे रह जाता है तब उनके आमाशय में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल की मात्रा बढ़ जाती है जिसके कारण म्यूकस की स्त्राव घट जाती ऐसी स्थिति में आमाशय की दीवारों पर अंदर की उर धँसे हुए घाव निकल जाते हैं, जिसे पेप्टिक अल्लर कहते हैं | आमाशय में भोजन के वसा का आंशिक पाचन एंजाइम गैस्ट्रिक लाइपेज के द्वारा होता है | गैस्ट्रिक लाइपेज वसा को वसा अम्ल तथा ग्लिसरॉल में बदलता है | आमाशय में अब भोजन का स्वरूप गढ़े लेई की तरह हो जाता है, जिसे काइम कहते है | काइम आमाशय के पाइलोरिक छिद्र के द्वारा छोटी आँत में पहुँचता है |
5. छोटी आँत – छोटी आँत आहारनाल का सबसे लंबा भाग में पाचन की क्रिया पूर्ण होती है मनुष्य में इनकी लंबाई लगभग 6 मीटर तथा चौड़ाई 2⋅5 सेंटीमीटर होती है | शाकाहारी जंतुओं में मांसाहारी जंतुओं की अपेक्षा छोटी आंत की लम्बाई अधिक होती है, क्योंकि मांसाहारी भोजन का पाचन सरल होता है | छोटी आँत तीन भागों – ग्रहणी, जेजुनम तथा इलियम में बाँटा होता है | ग्रहण, छोटी आँत का पहला भाग है जो आमाशय के पाइलोरिक भाग के ठीक बाद शुरू होता है यह C के आकार का होता है | ग्रहणी में लगभग बीचोबीच एक छिद्र के द्वारा एक नलिका खुलती है | यह नलिका दो भिन्न – भिन्न नलिकाओं के आपस में जुड़ने से बनी होती है | इनमें से एक नलिका अग्नयाशयी वाहिनी तथा दूसरी नलिका मूल पित्त वाहिनी होती है | जेजुनम छोटी आँत का मुख्य भाग है यह भोजन को ग्रहणी से इलियम तक पहुँचाता है |
इलियम में भोजन का अंतिम रूप से पाचन समाप्त होता है पचे हुए भोजन का अवशोषण भी छोटी आँत के इसी भाग में होता है | छोटी आँत में भोजन का पाचन पित, अग्न्याशायी रस तथा आँत – रस सक्कस एंटेरीकस की क्रिया से होता है |
6. यकृत – यह शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है जो उदर से ऊपरी दाहिने भाग में अवस्थित है यकृत करीब 1⋅5kg का होता है | यकृत कोशिकाओं से पित्त का स्त्राव होता है | स्त्रावित पित्त का संचय पिताशय नामक एक छोटी थैली जैसी रचना में होता है | यकृत नलिकाएँ पिताशय से निकलनेवाली नलिका के साथ जुड़कर एक मूल पिवाहिनी बनाती है | पित गाढ़ा एवं हरा रंग का क्षारीय द्रव है | इसमें कोई एंजाइम नहीं होता है |
पित के निम्नलिखित दो मुख्य कार्य है –
- पित्त आमाशय से ग्रहणी में आए अम्लीय काइम की अम्लीयता को नष्ट कर उसे क्षारीय बना देता है ताकि अग्न्याशायी रस के एंजाइम उसपर क्रिया कर सकें |
- पित्त के लवणों की सयाहता से भोजन के वसा का विखंडन तथा पयासिकरण होता है | ताकि वसा के तोड़नेवाले एंजाइम उसपर आसानी से क्रिया कर सके |
7. अग्न्याशय – आमाशय के ठीक नीचे तथा ग्रहणी को धेरे पीले रंग की तक ग्रंथि होती है जो अग्याशय कहलाती है | अग्न्याशय से निकलने वाली अग्न्याशायी वाहिनी तथा मूल पिवाहिनी मिलाकर एक छिद्र के द्वारा ग्रहणी में खुलती है | अग्न्याशायी रस में ट्रिप्सिन एमाइलेस, लाइपेस यूक्लियेज नामक एंजाइम पाए जाते है अग्न्याशायी रस के एंजाइम भोजन के अवयवों पर इस प्रकार से किया करते हैं |
ट्रिप्सिन + प्रोटीन → ट्रिपों + प्रोटीन
एमाइलेस + स्टार्च एवं ग्लाइकोजेन → माल्टोस
लाइ पेस + इमाल्सीकृत वसा → वसा अम्ल + ग्लिसरॉल
न्यूक्लियेज + न्यूक्लिक एसिड → न्यूक्लियोटाइड्स
8. आँत ग्रंथियाँ – छोटी आँत की दीवार में कई ग्रंथियाँ होती है इनका स्त्राव आँत – रस या सक्कस एंटेरीकस कहलाता है | आँत रस में पेप्टाइडेल, लाइपेस, इनवर्टेस, माल्टेस, लैक्टेस, न्यूक्वियेस नामक एंजाइम पाए जाते हैं | आँत – रस के एंजाइम तथा भोजन के विभिन्न अवयवों पर उनकी क्रिया इस प्रकार है –
पेप्टाइडेस + पेप्टोन → ऐमीनों अम्ल
लाइपेस + बची हुई इमल्सिकृत वसा → वसा अम्ल + ग्लिसरॉल
इनवर्टेज + सूक्रोज → ग्लूकोज + फ्रक्टोज
माल्टेस + माल्टोस → ग्लूकोज + ग्लूकोज + ग्लूकोज
लैक्टेस + लेक्टोस → ग्लूकोज + ग्लैक्टोज
न्यूक्लियेस + न्यूक्लिक एसिड → न्यूक्लियोटाइड्स
छोटी आँत में काइम और भी तरल हो जाता है तथा अब यह चाइल कहलाता है चाइल के पाचे हुए भोजन का अवशोषण इलियम के विलाइ के द्वारा होता है | अवशोषण के उपरांत सरल भोजन विलाई में स्थित रुधिर केशिकाओं के रूधिर में मिल जाते हैं | तथा रुधिर संचार के द्वारा विभिन्न भागों में वितरित हो जाते हैं |
9. बड़ी आँत – छोटी आँत आहारनाल के अगले भाग बड़ी आँत में खुलती है बड़ी आँदो भागों में बाँटा होता है ये भाग कोलन तथा मलाशय या टेक्टम कहलाता है छोटी आँत तथा बड़ी आँत के जोड़ पर एक छोटी नली होती है जो सिकम कहलाता है कोलन तीन भागों में विभक्त होता है ये भाग है | – उपरिगामी कोलन, अनुप्रस्थ कोलन, तथा अधोगामी कोलन | अधोगामी कोलन रेक्टम में खुलता है जो अंत में मल द्वार के द्वारा शिरी के बाहर खुलता है | अपचा भोजन इलियम के कोलन में से होते हुए रेक्टम में पहुँचता है बड़ी आँत के इन भागों में अपचे भोजन का अतिरिक्त जल भी अपशाषित हो जाता है अंत में अपचा भोजन मल के रूप में अस्थायी तौर पर रेक्टम में संचित रहता है जहाँ से यह समय – समय पर मलद्वार के रास्ते शरीर से बाहर निकल जाता है |